सब दिन होय न एक सा, समझ विचरहण बात। वरतण ऐ हो वरतियै, आदि अंत निभ जात।।

सब दिन होय न एक सा, समझ विचरहण बात। वरतण ऐ हो वरतियै, आदि अंत निभ जात।।

MARWARI KAHAWATE

MARWARI PATHSHALA

10/27/20241 min read

सब दिन होय न एक सा, समझ विचरहण बात।
वरतण ऐ हो वरतियै, आदि अंत निभ जात।।

जीवन में सारे दिन एक से नहीं हुआ करते हैं, इस बात को अच्छी तरह समझना आवश्यक होता है। इसलिए इस तरह चलना चाहिए कि शुरू से लेकर आखिर तक निभाव हो जाए। यानी जीवन समभाव से जीना चाहिये ।

किसी गांव में एक ठाकुर रहता था। वह बड़ा मौजी स्वभाव का था। गांव की जमीन अच्छी उपज वाली थी, इसलिए बीघोड़ी लगान भी खूब आती थी। उसके यहां रोज नये नये पकवान बनते। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता था, जब रावले में कढाई नहीं चढती होती। नित्य महफिलें जमती। नाच गाने और दारू के दौर चलते।उसकी महफिल में एक बुडढा भी आता था। वह सीधा सादा था। उमर में ठाकुर सेबड़ा था, अत उसने नाच गाने और खाने पीने में पैसा बरबाद करने के लिए मना किया करता। लेकिन ठाकुर हंसकर उससे यही कहता कि चार दिनों की जिंदगी मेंमौज शौक नहीं करेंगे तो फिर कब करेंगे? बेचारा बुडढा यह सुनकर चुप रह जाता।एक बार गांव में अकाल पड़ा। लेकिन ठाकुर चेता नहीं। आमदनी हुई नहीं औरखर्चा होता रहा। आखिर उसके पास दाल रोटी खाने के पैसे भी मुश्किल से रहे।अब वह परिवार के साथ भोजन करता तो कोई कहता कि दाल ठीक नहीं है, कोई खीच खाते ही थू करता। इतने लंबे वक्त तक वे तर माल और मिठाई खाते रहे थे,इसलिए अब उन्हें ऐसा भोजन कैसे भाता। एक दिन उनके भोजन करते समय वह बुडढा वहां पहुंच गया। उसको ठाकुर के परिवार की दशा पर बड़ा अफसोस हुआ।तब बुडढे ने ठाकुर को संबोंधित करते हुए कहा कि ठाकुर साहब। सभी दिन एक समान नहीं होते। आपने इतने दिन माल मलीदे खाए, तो अब लूखा सूखा खीच भी खाएं। रबडी मलाई नहीं मिले तो शाम को लूखा सूखा भोजन करके ही संतोष करें।आपको मालूम नहीं था कि कभी अकाल भी पड़ेगा। अच्छा जमाना हर समय नहीं रहता। समभाव में जीते तो आज यह दिन नहीं देखने पड़ते। वक़्त हमेशा एक जैसा नहीं रहता अच्छा हो या बुरा ।