भैरव डर किण बात रो, जे अपणै मन साच। आपै परगट होवसी, ओ कंचन ओ काच।।

भैरव डर किण बात रो, जे अपणै मन साच। आपै परगट होवसी, ओ कंचन ओ काच।।

MARWARI KAHAWATE

MARWARI PATHSHALA

10/27/20241 min read

भैरव डर किण बात रो, जे अपणै मन साच।
आपै परगट होवसी, ओ कंचन ओ काच।।

यदि अपने मन में सच्चाई है तो फिर डर किसी बात का नहीं होना चाहिए।

क्योंकि, देर-सवेर यह स्वत प्रकट हो जाता है कि यह कंचन है और यह कांच है।

गढ सिवाणा के निकटवर्ती नगर महेवास में सुलतान नाम का सेठ रहता था, जिसकी पत्नी का नाम धनश्री था। उसके सुरूपा नाम की एक सखी थी। एक बार सुरूपा अपनी सखी के यहां मिलने गई और दोनों काफी देर तक बातें करती रही। उस दिन धनश्री का बतीस रत्नों का मूल्यवान हार खूंटी पर टंगा हुआ था और खूंटी के ठीक नीचे खुला तैल पात्र पड़ा था। एक चूहा दौड़ता हुआ खूंटी के पास से गुजरा तो वह हार उस तैल पात्र में गिर गया। उसे तैल पात्र में गिरते हुए किसी ने भी नहीं देखा। बातें कर लेने के बाद सुरूपा तो सखी के घर से अपने घर आ गई। वह तो निर्विकल्प थी। कुछ देर बाद धनश्री ने जब खूंटी पर टंगा हुआ अपना हार नहीं देखा तो उसने सोचा कि सुरूपा के सिवाय तो और कोई मेरे धर आया नहीं, अत अवश्य वही मेरा हार ले गई है। धनश्री हार की चिंता में पड़ी हुई थी कि तभी भोजन के लिए सुलतान सेठघर आ गया। उसने उसे उदास देखा तो उदासी का कारण पूछा। तब धनश्री ने बतीस रत्नों वालें हार के खो जाने की घटना बतलाई। साथ ही सुरूपा पर अपना संदेह प्रकट किया। सुलतान सेठ तब सुरूपा के पति के पास गया और हार के खो जाने की घटना से उसे अवगत कराया। अपने पति से हार खो जाने की घटना और अपने पर कलंक आने की बात ज्ञात कर सरूपा को अत्यंत दुख हुआ। सुरूपा के पति ने उसे निर्दोष जान कर सुलतान सेठ से जाकर कहा कि मित्र, मेरी स्त्री ने तुम्हारा हार नहीं लिया है, यदि तुम्हारा यही खयाल है कि उसने हार लिया है तो उसी के समान मूल्य का मेरा यह हार ग्रहण करो। सुलतान से ने वह हार लेकर रख लिया और बाद में उसे अपनी स्त्री को दे दिया। सारी बात गुप्त रूप से ढकी रह गई। जब धीरे धीरे सारा तैल बिक गया और नीचै मैल में लिपटा हुआ हार निकला तो सुलतान सेठ को बड़ी भारी चिंता हुई। उसने सोचा कि मेरे जैसा पापी कौन होगा, जिसने सरूपा जैसी सती साध्वी महिला को मिथ्या कलंक लगाया और उसका हार लेकर चांडाल कर्म किया। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। वह उसी समय सुरूपा का हार लेकर उसके घर रवाना हुआ। उसके मन में ग्लानि हो रही थी, जिसके कारण उसके पांव धीमे धीमे पड रहे थे। वह सुरूपा के घर पहुंचा और उसने बार बार क्षमा मांगी और उसका हार उसे वापस सौंप दिया। वह वहां से चुपचाप अपने घर चला गया। सुरूपा को अपने कलंक के उतरने और हार के मिलन जाने की अत्यंत प्रसन्नता हुई। उसे अब इस बात का हर्ष था कि उसकी सखी धनश्री को पता चल ही गया कि मैंने हार नहीं चुराया।