फळ करणी रा सार, पडै ज सब नै भुगतणा। करो उपाय हजार, रती न छूटै रमणिया।।

फळ करणी रा सार, पडै ज सब नै भुगतणा। करो उपाय हजार, रती न छूटै रमणिया।।

MARWARI KAHAWATE

MARWARI PATHSHALA

10/27/20241 min read

फळ करणी रा सार, पडै ज सब नै भुगतणा।
करो उपाय हजार, रती न छूटै रमणिया।।

इस संसार में सत्य यही है कि अपनी-अपनी करनी के फल सबको ही भुगतने पड़ते हैं।

कोई हजार उपाय भी करले, तो वह करनी के फल से कभी मुक्त नहीं हो सकता।

एक सेठ था। उसके यहां रोज सदाव्रत लगता था। सवा मन अनाज उसके नौकर रोज बांटा करते थे, लेकिन उस सदाव्रत में दया की कोई भावना नहीं थीं, केवल नाम की चाह थी। सदाव्रत पाने वालों के प्रति आदर-सत्कार का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था, केवल यंत्रवत् काम चलता था। कभी-कभी तो ऐसा होता कि अगर सदाव्रत लेने वालों की संख्या जरूरत से ज्यादा हो जाती और वह सवा मन अनाज सबके हिस्से में नहीं आता तो बचे हुए लोगों को मारपीट कर भी निकाल दिया जाता। उस सेठ के एक पुत्र वधू थी। वह इस दान का कोई महत्व नहीं मानती थी, बल्कि उसे तो इसके प्रति ग्लानि ही थी। वह स्वयं थोड़ा सा अनाज लेकर उसे अपने हाथों से अच्छी तरह चुग छांट कर स्वयं ही पीसती और अपने हाथों से अच्छी अच्छी रोटियां बनाकर किसी सत्पात्र को ढूंढकर आदर और स्नेह के साथ भोजन कराया करती। स्वयं ही उसके लिए आसन बिछाती और भोजन करने वाले को अपने हाथ से पंखा भी डुलाया करती। समय बीतता गया और एक दिन ऐसा भी आया कि सेठ की मृत्यु हो गई। थोड़े वर्षों बाद वह पुत्रवधू भी चल बसी। दोनों का जन्म एक राजा के यहां हुआ, लेकिन सेठ जन्मा हाथी के रूप में और पुत्रवधू राजकन्या के रूप में। लडकी के वयस्क होने पर राजा ने उसका विवाह किया। विवाह में अन्य वस्तुओं के साथ हाथी भी दहेज में दिया गया। जब वह लडक़ी हाथी पर बैठने लगी तो हाथी के पूर्व जन्म की सारी बात याद आ गई। उसने सोचा कि मैं जो सवा मन अनाज का नित्यदान करता था, उसे तो हाथी की योनि मिली और यह लडक़ी जो मुश्किल से एक पाव अन्न की रोटियां देती थी, उसे राजपद मिला। यह तो अन्याय है। इस लडक़ी को अपने ऊपर कतेई सवार नहीं होने दूंगा। इस बीच राजकन्या को भी पूर्वजन्म की स्मृति जाग उठी थी। इसलिए अब उसके लिए हाथी की पीठ पर चढने का सवाल ही नहीं रह गया था। लेकिन उसने हाथी के कान में इतना अवश्य कहा कि जो हुआ उसे आप भगवान के घर का अन्याय कैसे मानते हैं? आप सवा मन अनाज रोज बांटते थे, तो आपको सवा मन ही मिल रहा है और मैं अगर एक पाव देती थी तो मुझे एक पाव से ज्यादा मिलती भी कहां है। फर्क इतना ही है कि आप जिस भावना से और जिस पद्धति से अनाज बांटते थे, उसी तरह आपको मिल रहा है और मैं जिस सम्मान और भावना के साथ दिया करती थी, मुझे उसी सम्मान के साथ मिल रहा है। हाथी के अंत चक्षु खुल गए और वह शांत हो गया। राजकन्या ने फिर हाथी से कभी परिश्रम का नहीं लिया।

करनी जितनी शुद्ध भावना से होगी फल भी उतना ही बेहतर होगा।।